वर्तमान में पूरी दुनिया लगातार बढ़ रहे वैश्विक तापन के स्तर से चिन्तित है। पर्यावरण असंतुलन, अनिश्चित मात्रा में कट रहे पेड़, वाहनों की संख्या में हो रहा इजाफा, ए.सी एवं फ्रिज का बढ़ता उपयोग एवं वैश्विक तापन में वृद्धि से सिकुड़ते ग्लेशियर इसका प्रमुख कारण है।
हालांकि पर्यावरण संपूर्ण विश्व में एक संवेदनशील मुद्दा है। पर्यावरण को लेकर समय-समय पर अनेक चिंताए, इसे समृद्ध एवं स्वच्छ बनाने के लिए अनेक ग्लोबल सम्मिट एवं गोष्ठियों का आयोजन होता रहता है।
माना जाता है कि भारत में ही सर्वप्रथम पर्यावरण को बचाने के लिए जनसहभागिता हुई। हरे पेड़ों को काटने के विरोध में सबसे पहला आंदोलन उत्तराखंड के चमोली जनपद में 26 मार्च, 1974 को ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में प्रारम्भ हुआ, जिसका नेतृत्व ग्राम रैणी की वीरांगना गौरादेवी ने किया था । गौरादेवी का जन्म 1925 में ग्राम लाता, जोशीमठ (उत्तरांखण्ड) में और विवाह 12 वर्ष की उम्र में ग्राम रैणी के मेहरबान सिंह से हुआ लेकिन 22 वर्ष की उम्र में ही उनके पति का देहावशान हो गया। इसके बाद गौरा देवी अकेले ही अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए मेहनत-मजदूरी करने लगी। कालांतर में संयुक्त प्रांत उत्तर प्रदेश सरकार ने जंगलों को काटकर अकूत राजस्व बटोरने की नीति बनाई। जंगल कटने का सर्वाधिक असर पहाड़ की महिलाओं पर पड़ना तय था क्योंकि जंगल ही उनके लिए घास और लकड़ी प्राप्त करने के मुख्य साधन होते थे। लेकिन लखनऊ और दिल्ली में बैठे निर्मम प्रशासकों को इन सबसे क्या लेना था, उन्हें तो प्रकृति द्वारा प्रदत्त हरे-भरे वन अपने लिए संशाधनों की अकूत सम्पदा नजर आने लगे थे। गांव की महिला गौरादेवी का मन इससे उद्वेलित हो रहा था। 26 मार्च, 1974 को गौरा ने देखा कि मजदूर बड़े-बड़े आरे (पेड़ काटने का औजार) लेकर ऋषिगंगा के पास देवदार के जंगल काटने जा रहे थे। अतः गौरादेवी ने एक योजना बनाई और शोर मचाकर गांव की सभी महिलाओं को बुलाकर जंगल की ओर चढाई कर दी। पेड़ों को काटने के विरोध में सब महिलाएं पेड़ों से लिपट गयीं। उन्होंने ठेकेदार को बता दिया कि उनके जीवित रहते जंगल नहीं कटेगा। ठेकेदार ने महिलाओं को समझाने और फिर बंदूक से डराने का प्रयास किया पर गौरादेवी ने साफ कह दिया कि कुल्हाड़ी का पहला प्रहार उसके शरीर पर होगा, पेड़ पर नहीं। ठेकेदार और उनके साथी महिलाओं के इस अदम्य साहस को देख पीछे हट गए और हथियार डालने पर मजबूर हुए। गौरा देवी और उनकी साथी महिलाओं का यही प्रयास ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुछ ही दिनों में यह आंदोलन आग की तरह पूरे पहाड़ में फैल गया। आगे चलकर चंडीप्रसाद भट्ट तथा सुंदरलाल बहुगुणा जैसे समाजसेवियों के जुड़ने से यह आंदोलन विश्व भर में प्रसिद्ध हो गया।
26 मार्च 2018 को इस आंदोलन की 45वीं वर्षगाँठ देश और खासकर उत्तराखण्ड में विशेष रूप से मनाई गई। इस अवसर पर सर्च इंजन गूगल ने भी "चिपको आंदोलन" को अपना डूडल समर्पित कर चिपको आंदोलन की सूत्रधार गौरा देवी को श्रद्धांजलि दी है। हम सभी को गौरा देवी के इस साहसिक कार्य से प्रेरणा लेकर वर्तमान परिदृश्य में भी पर्यावरण को बचाने के लिए ऐसे ही आंदोलन खड़ा करने की आवश्यकता है जिससे कि पहाड़ के जल, जंगल व जमीन को दलालों के हाथों में जाने से रोका जा सके।
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