Wednesday, August 22, 2018

लोक धरोहर: स्व० चंद्र सिंह राही

लोक धरोहर: स्व० चंद्र सिंह राही

  
अनिरुद्ध पुरोहित
(स्वतन्त्र लेखक एवं टिप्पणीकार)
 "चैता की चैत्वाळ्या" जागर गीत उत्तराखंड में ही नहीं वरन 
जहां-जहां पहाड़ी लोक की समझ रखने वाले लोग निवास करते हैं; सम्पूर्ण देश एवं दुनिया में नईं धुन एवं कम्पोजिशन के कारण चरम सीमा तक प्रसिद्ध हुआ। लेकिन इस गीत के असल गीतकार स्व० चंद्र सिंह राही को जो प्रसिद्धि मिलनी चाहिए थी, वह नाकाफी साबित हुई। यह गीत उत्तराखंड के महान लोकगायक, सामाजिक मुद्दों को अपनी कलम के जरिए उकेरने वाले एवं उत्तराखंड के गीतों को देश और दुनिया तक पहुंचाने वाले शख्स श्रद्धेय चंद्र सिंह राही जी द्वारा 2008 में एक जागर गीत के रूप में गाया गया था। 
    
   महान लोक कलाकार चन्द्र सिंह राही जी का जन्म पौड़ी के गिंवाली गाँव में 28 मार्च 1942 को हुआ था। संगीत उन्हें देवर्शीर्वाद के रूप में प्राप्त था। उन्होंने संगीत का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था, बल्कि यह उन्हें विरासत में मिला था। उनके पिता स्वयं संस्कृति एवं लोक के प्रख्यात जानकार थे।

 
लोक धरोहर: स्व० चंद्र सिंह राही

 
   चंद्र सिंह राही मात्र लोकगायक ही नहीं, वरन लोक समाज से उभरे हुए एक ऐसे ब्यक्तित्व के धनी थे, जिन्होंने लोक को बहुत निकटता से समझा, जाना और उसे प्रस्तुत किया। ईश्वर द्वारा वर्दानित कंठ को उन्होंने लोकशैलियों, बोलियों, परम्पराओं में इस तरह ढाला कि उनके कंठ से गाये गए गीत पहाड़ की विरासत बन गये। लोक संगीत को उन्होंने ऐसे मानकों तक स्थित किया, जहां से उसके मर्म को स्पष्टतः समझा व जाना जा सकता है । चन्द्र सिंह राही उस दौर के सच्चे प्रतिबद्ध व प्रतिभाशाली लोकगायक थे, जिस दौर में किसी भी प्रकार का डिजिटिलाइजेशन दूर-दूर तक नहीं था । मात्र आकाशवाणी और घर-घर बजने वाला टेप ही एक ऐसा जरिया था, जहां उनकी आवाज की पहुँच थी । मुझे याद है कि उस दौर में हमारे बुजुर्ग अपने आवश्यक कार्यो के अलावा राही के चुलबुले गीतों को सुनना न भूलते थे । पहाह के जीवन की कार्याधिक्ता, कठिन परिश्रम और समयाभाव के बीच राही के ये गीत संजीवनी स्वरूप लगते थे । गीत लोक के हों या उनकी कलम के, उन्होंने कभी भी अपने परिवेश को नहीं लाँघा । गीत वाद्य का ऐसा तालमेल विरले कलाकारों की रचनात्मक्ता में मिलता है । राही जब मंच पर लाइव परफॉर्मेन्स करते थे, तो उनके हाथों का "हुड़का" कंठ की मधुरता और शारीरिक भाव भंगिमाएं पहाड़ की उस गीत शैली का प्रतिनिधित्व करती नजर आती थी जो शैली परंपरागत रूप से हमें मिली है । लोक से उपजी हुई घटनाओं, परिघटनाओं, हाश, कोतूहल आदि सभी का सम्मिश्रण राही के गीतों में सहज ओर सरल रूप से महसूस किया जा सकता है । हिलमा चांदी को बटना, सोली घूरा घूर दगड्या, ज़रा ठंडु चले द्या ज़रा मठु चला दी, रूप की खजानी भग्यानी कनी छे आदि ऐसे दर्जनों गीत हैं, जिनसे राही को पहचाना जा सकता है । अपने दौर में उन्होंने सभी नामी-गिरामी साहित्यकारों, कलाकारों के साथ काम किया। उनके पास लोकगीतों का खजाना था। उन्होंने खुद भी गीत लिखे और उनको गाया। लोक वाद्यों को बजाने में भी उनको महारत हासिल थी। डौर, हुड़की, ढोल, दमाऊँ जैसे वाद्ययंत्रों को भी वे बड़ी कुशलता से बजा लेते थे। राही के गीत उनका कंठ और उनके द्वारा छोड़ी गयी विरासत एक संस्थान के रूप में हैं । नयी लोक संतति को चाहिए कि इस संस्थान से अधिकतम अर्जन करें और पहाड़ी संगीत, जिसे कि निरंतर अवैज्ञानिक और अपसंस्कारित तरीके से पाश्यात्य आवरण में प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है, उसे सच्ची दिशा में ले जाया जा सके, जिससे हिमालय की कंदराओं से निकलने वाला लोक संगीत का प्रवाह सतत रूप से बहता रहे।
लोक धरोहर: स्व० चंद्र सिंह राही

   10 जनवरी 2016 को पहाड़ के यह अद्वितीय कलाकर हम सभी को छोड़कर चले गए। उनके द्वारा विरासत में छोड़े गए गीत और लोक शैलियों से हम सभी कुछ-न-कुछ सीखते रहें और उनकी विरासत को आगे बढाने में सहयोग करते रहें; राही के प्रति यही सच्ची श्रद्धा है ।

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