Wednesday, August 22, 2018

चिपको आंदोलन की सूत्रधार गौरा देवी




अनिरुद्ध पुरोहित
(स्वतन्त्र लेखक एवं टिप्पणीकार)



वर्तमान में पूरी दुनिया लगातार बढ़ रहे वैश्विक तापन के स्तर से चिन्तित है। पर्यावरण असंतुलन, अनिश्चित मात्रा में कट रहे पेड़, वाहनों की संख्या में हो रहा इजाफा, ए.सी एवं फ्रिज का बढ़ता उपयोग एवं वैश्विक तापन में वृद्धि से सिकुड़ते ग्लेशियर इसका प्रमुख कारण है। 
    हालांकि पर्यावरण संपूर्ण विश्व में एक संवेदनशील मुद्दा है। पर्यावरण को लेकर समय-समय पर अनेक चिंताए, इसे समृद्ध एवं स्वच्छ बनाने के लिए अनेक ग्लोबल सम्मिट एवं गोष्ठियों का आयोजन होता रहता है। 

     माना जाता है कि भारत में ही सर्वप्रथम पर्यावरण को बचाने के लिए जनसहभागिता हुई। हरे पेड़ों को काटने के विरोध में सबसे पहला आंदोलन उत्तराखंड के चमोली जनपद में 26 मार्च, 1974 को ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में प्रारम्भ हुआ, जिसका नेतृत्व ग्राम रैणी की वीरांगना गौरादेवी ने किया था । गौरादेवी का जन्म 1925 में ग्राम लाता, जोशीमठ (उत्तरांखण्ड) में और विवाह 12 वर्ष की उम्र में ग्राम रैणी के मेहरबान सिंह से हुआ लेकिन 22 वर्ष की उम्र में ही उनके पति का देहावशान हो गया। इसके बाद गौरा देवी अकेले ही अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए मेहनत-मजदूरी करने लगी। कालांतर में संयुक्त प्रांत उत्तर प्रदेश सरकार ने जंगलों को काटकर अकूत राजस्व बटोरने की नीति बनाई। जंगल कटने का सर्वाधिक असर पहाड़ की महिलाओं पर पड़ना तय था क्योंकि जंगल ही उनके लिए घास और लकड़ी प्राप्त करने के मुख्य साधन होते थे। लेकिन लखनऊ और दिल्ली में बैठे निर्मम प्रशासकों को इन सबसे क्या लेना था, उन्हें तो प्रकृति द्वारा प्रदत्त हरे-भरे वन अपने लिए संशाधनों की अकूत सम्पदा नजर आने लगे थे।  गांव की महिला गौरादेवी का मन इससे उद्वेलित हो रहा था। 26 मार्च, 1974 को गौरा ने देखा कि मजदूर बड़े-बड़े आरे (पेड़ काटने का औजार) लेकर ऋषिगंगा के पास देवदार के जंगल काटने जा रहे थे। अतः गौरादेवी ने एक योजना बनाई और शोर मचाकर गांव की सभी महिलाओं को बुलाकर जंगल की ओर चढाई कर दी। पेड़ों को काटने के विरोध में सब महिलाएं पेड़ों से लिपट गयीं। उन्होंने ठेकेदार को बता दिया कि उनके जीवित रहते जंगल नहीं कटेगा। ठेकेदार ने महिलाओं को समझाने और फिर बंदूक से डराने का प्रयास किया पर गौरादेवी ने साफ कह दिया कि कुल्हाड़ी का पहला प्रहार उसके शरीर पर होगा, पेड़ पर नहीं। ठेकेदार और उनके साथी महिलाओं के इस अदम्य साहस को देख पीछे हट गए और हथियार डालने पर मजबूर हुए। गौरा देवी और उनकी साथी महिलाओं का यही प्रयास ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुछ ही दिनों में यह आंदोलन आग की तरह पूरे पहाड़ में फैल गया। आगे चलकर चंडीप्रसाद भट्ट तथा सुंदरलाल बहुगुणा जैसे समाजसेवियों के जुड़ने से यह आंदोलन विश्व भर में प्रसिद्ध हो गया।



   26 मार्च 2018 को इस आंदोलन की 45वीं वर्षगाँठ  देश और खासकर उत्तराखण्ड में विशेष रूप से मनाई गई। इस अवसर पर सर्च इंजन गूगल ने भी "चिपको आंदोलन" को अपना डूडल समर्पित कर चिपको आंदोलन की सूत्रधार गौरा देवी को श्रद्धांजलि दी है। हम सभी को गौरा देवी के इस साहसिक कार्य से प्रेरणा लेकर वर्तमान परिदृश्य में भी पर्यावरण को बचाने के लिए ऐसे ही आंदोलन खड़ा करने की आवश्यकता है जिससे कि पहाड़ के जल, जंगल व जमीन को दलालों के हाथों में जाने से रोका जा सके।


क्या रिवर्स पलायन करा पाएगी सरकार ?

Rivers Migration एक चुनौती !

अनिरुद्ध पुरोहित
(स्वतन्त्र लेखक एवं टिप्पणीकार)


सुविधाओं के अभाव में भारतीय नागरिकों की अपने मूल स्थान से सुविधायुक्त स्थानों की तरफ पलायित हो जाने की जब भी चर्चा होती है, सभी पर्वतीय एवं पलायनवादी राज्यों में उत्तराखंड शीर्ष स्थान पर होता है। इसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला, उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में सुख सुविधाओं; अर्थात शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार का अभाव और दूसरा, आपदाओं का  यहां के निवासियों पर अत्याधिक बोझ। हर वर्ष उत्तराखंड किसी-न-किसी आपदा को लेकर राष्ट्रीय सुर्खियों में रहता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि यह समस्या केवल उत्तराखण्ड में ही है, लेकिन हाल ही में उत्तराखण्ड के ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग की ओर से प्रकाशित हुई पहली 'अंतरिम पलायन रिपोर्ट' भयावह तस्वीर को उजागर करने वाली है। इस रिपोर्ट में साफतौर पर कहा गया है कि राज्यनिर्माण के बाद से यहां के अधिकतर निवासियों ने सुख-सुविधाओं के अभाव में अपना घर-बार छोड़ राज्य के बाहर या राज्य के सुविधासम्पन्न शहरों को अपना नया ठिकाना बना  दिया है। पलायन के स्वरूप में विस्तार होने से एक नईं समस्या ने भी जन्म ले लिया है। हश्र यह है कि, जिन शहरों में लग्जरी लाइफ का सपना लिए लोग पलायित होकर गए थे, वहां जनसंख्या विस्फोट (1 वर्ग किलोमीटर में क्षमता से अधिक लोगों का होना), अत्यधिक ट्रैफिक और प्रदूषण जैसी समस्याओं ने विस्तारित रूप में अपने पांव पसार लिए हैं। पलायन आयोग की रिपोर्ट आने के बाद सरकार रिवर्स पलायन अर्थात जो लोग गाँव छोड़ पलायन कर शहरों में आए हैं, उन्हें आवश्यक सुविधायें मुहैया कराकर वापस अपने मूल स्थान भेजने को लेकर चिंतन करती दिखाई दे रही है। अब सवाल यह है कि क्या वास्तव में रिवर्स पलायन सम्भव है ? इसका जवाब हां में दिया जाय तो गलत नहीं होगा लेकिन कुछ शर्तों को पूरा करने के साथ ही यह जवाब देना तर्कसंगत प्रतीत होता दिखाई देगा। रिवर्स पलायन की पहली और मूल शर्त यही होगी कि पहाड़ में मूलभूत सुविधाओं का युद्धस्तर पर विकास किया जाय, जिससे लोगों को अपनी समस्याओं को निचले स्तर पर ही सुलझाने का अवसर प्राप्त हो सके।  दूसरी मौलिक शर्त की बात करें तो राज्य के निवासियों को ग्रामस्तर पर ही ऐसा प्रशिक्षण दिया जाय कि वह राज्य की अर्थव्यवस्था के प्राथमिक (कृषि) व द्वितीयक (निर्माण एवं विनिर्माण) क्षेत्रकों में काम कर लाभ कमाने के काबिल बन सकें । राज्य के लिए तीसरी चुनौती आदमखोर वन्यजीवों जैसे: बंदर, सुअर, नरभक्षी बाघ आदि पर नियंत्रण लगाने की होगी। क्योंकि वीरान पड़ते गांवों में अब आदमखोर वन्यजीव अपना बसेरा बनाने लगे हैं। चौथी प्रमुख शर्त आपदा प्रबंधन करने और इससे निपटने की होनी चाहिए, जिसके लिए मुस्तैद सुरक्षा दल और तकनीक का सामंजस्य बेहद जरूरी होना चाहिए।



Rivers Migration एक चुनौती !


   गौरतलब है कि उत्तराखंड सरकार पहाड़ के लोगों को रोजगार एवं मूलभूत आवश्यकताओं के विकास हेतु संसाधन उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत है जैसे कि, राज्य की महिला स्वयं सहायता समूहों के लिए प्रसाद योजना, गामीण पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए होम स्टे योजना, ग्रोथ सेंटरों का निर्माण, पिरूल नीति आदि-आदि। लेकिन यह प्रयास कछुआ गति से और बिना किसी नियोजन के किया जा रहा है, जो कि सरकार का गैरजिम्मेदाराना रवैया है। अगर वास्तव में सरकार रिवर्स पलायन की अवधारणा को जमीन पर उतारने के लिए उत्सुक है, तो उसे उपरोक्त उल्लिखित समस्याओं का शीघ्रातिशीघ्र निवारण करना चाहिए और इसके लिए एक विजन बनाना चाहिए, तभी यह कार्यक्रम सफल हो पायेगा। अन्यथा इसे भी पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यक्रमों की ही तरह 'कोरी घोषणा' करार देने में लोग कतई परहेज नहीं करेंगे। 


लोक धरोहर: स्व० चंद्र सिंह राही

लोक धरोहर: स्व० चंद्र सिंह राही

  
अनिरुद्ध पुरोहित
(स्वतन्त्र लेखक एवं टिप्पणीकार)
 "चैता की चैत्वाळ्या" जागर गीत उत्तराखंड में ही नहीं वरन 
जहां-जहां पहाड़ी लोक की समझ रखने वाले लोग निवास करते हैं; सम्पूर्ण देश एवं दुनिया में नईं धुन एवं कम्पोजिशन के कारण चरम सीमा तक प्रसिद्ध हुआ। लेकिन इस गीत के असल गीतकार स्व० चंद्र सिंह राही को जो प्रसिद्धि मिलनी चाहिए थी, वह नाकाफी साबित हुई। यह गीत उत्तराखंड के महान लोकगायक, सामाजिक मुद्दों को अपनी कलम के जरिए उकेरने वाले एवं उत्तराखंड के गीतों को देश और दुनिया तक पहुंचाने वाले शख्स श्रद्धेय चंद्र सिंह राही जी द्वारा 2008 में एक जागर गीत के रूप में गाया गया था। 
    
   महान लोक कलाकार चन्द्र सिंह राही जी का जन्म पौड़ी के गिंवाली गाँव में 28 मार्च 1942 को हुआ था। संगीत उन्हें देवर्शीर्वाद के रूप में प्राप्त था। उन्होंने संगीत का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था, बल्कि यह उन्हें विरासत में मिला था। उनके पिता स्वयं संस्कृति एवं लोक के प्रख्यात जानकार थे।

 
लोक धरोहर: स्व० चंद्र सिंह राही

 
   चंद्र सिंह राही मात्र लोकगायक ही नहीं, वरन लोक समाज से उभरे हुए एक ऐसे ब्यक्तित्व के धनी थे, जिन्होंने लोक को बहुत निकटता से समझा, जाना और उसे प्रस्तुत किया। ईश्वर द्वारा वर्दानित कंठ को उन्होंने लोकशैलियों, बोलियों, परम्पराओं में इस तरह ढाला कि उनके कंठ से गाये गए गीत पहाड़ की विरासत बन गये। लोक संगीत को उन्होंने ऐसे मानकों तक स्थित किया, जहां से उसके मर्म को स्पष्टतः समझा व जाना जा सकता है । चन्द्र सिंह राही उस दौर के सच्चे प्रतिबद्ध व प्रतिभाशाली लोकगायक थे, जिस दौर में किसी भी प्रकार का डिजिटिलाइजेशन दूर-दूर तक नहीं था । मात्र आकाशवाणी और घर-घर बजने वाला टेप ही एक ऐसा जरिया था, जहां उनकी आवाज की पहुँच थी । मुझे याद है कि उस दौर में हमारे बुजुर्ग अपने आवश्यक कार्यो के अलावा राही के चुलबुले गीतों को सुनना न भूलते थे । पहाह के जीवन की कार्याधिक्ता, कठिन परिश्रम और समयाभाव के बीच राही के ये गीत संजीवनी स्वरूप लगते थे । गीत लोक के हों या उनकी कलम के, उन्होंने कभी भी अपने परिवेश को नहीं लाँघा । गीत वाद्य का ऐसा तालमेल विरले कलाकारों की रचनात्मक्ता में मिलता है । राही जब मंच पर लाइव परफॉर्मेन्स करते थे, तो उनके हाथों का "हुड़का" कंठ की मधुरता और शारीरिक भाव भंगिमाएं पहाड़ की उस गीत शैली का प्रतिनिधित्व करती नजर आती थी जो शैली परंपरागत रूप से हमें मिली है । लोक से उपजी हुई घटनाओं, परिघटनाओं, हाश, कोतूहल आदि सभी का सम्मिश्रण राही के गीतों में सहज ओर सरल रूप से महसूस किया जा सकता है । हिलमा चांदी को बटना, सोली घूरा घूर दगड्या, ज़रा ठंडु चले द्या ज़रा मठु चला दी, रूप की खजानी भग्यानी कनी छे आदि ऐसे दर्जनों गीत हैं, जिनसे राही को पहचाना जा सकता है । अपने दौर में उन्होंने सभी नामी-गिरामी साहित्यकारों, कलाकारों के साथ काम किया। उनके पास लोकगीतों का खजाना था। उन्होंने खुद भी गीत लिखे और उनको गाया। लोक वाद्यों को बजाने में भी उनको महारत हासिल थी। डौर, हुड़की, ढोल, दमाऊँ जैसे वाद्ययंत्रों को भी वे बड़ी कुशलता से बजा लेते थे। राही के गीत उनका कंठ और उनके द्वारा छोड़ी गयी विरासत एक संस्थान के रूप में हैं । नयी लोक संतति को चाहिए कि इस संस्थान से अधिकतम अर्जन करें और पहाड़ी संगीत, जिसे कि निरंतर अवैज्ञानिक और अपसंस्कारित तरीके से पाश्यात्य आवरण में प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है, उसे सच्ची दिशा में ले जाया जा सके, जिससे हिमालय की कंदराओं से निकलने वाला लोक संगीत का प्रवाह सतत रूप से बहता रहे।
लोक धरोहर: स्व० चंद्र सिंह राही

   10 जनवरी 2016 को पहाड़ के यह अद्वितीय कलाकर हम सभी को छोड़कर चले गए। उनके द्वारा विरासत में छोड़े गए गीत और लोक शैलियों से हम सभी कुछ-न-कुछ सीखते रहें और उनकी विरासत को आगे बढाने में सहयोग करते रहें; राही के प्रति यही सच्ची श्रद्धा है ।

मोबाइल और उसका आभामण्डल



वर्तमान परिदृश्य में समय की मांग कुछ ऐसी है कि बिन 
अनिरुद्ध पुरोहित
(स्वतन्त्र लेखक एवं टिप्पणीकार)
मोबाइल एक दिन व्यतीत करना, यूपीएससी की परीक्षा
पास करने से भी ज्यादा कठिन हो गया है । वर्तमान दौर में हम लोग अति एडवान्स हो चले हैं। आप सभी को अच्छी तरीके से याद होगा कि जब तक हम इस आभासी दुनिया के संपर्क में न थे, तब कितना प्रेम हुआ करता था । लोग नियमित रूप से चिट्ठी-पत्री लिखा करते थे और उसका जबाव भी लोग अपनी कुशल-क्षेम के साथ दे दिया करते थे। आज यह हश्र है कि मानव जीवन खामखा ब्यस्त जीवन कहलाने लगा है । लोग वास्तव में ऑफलाइन होते हुए भी खुद को ऑनलाइन साबित करना चाहते हैं; वो खुद को यूनिवर्स का अतिव्यस्त मानव घोषित करना चाहते हैं।


   आजकल मानव जीवन पद्धति को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने के लिए सर्वाधिक बोलबाला चलवाणी (mobile) और अंतर्जाल तंत्र (internet) का है । यह सबका हमदर्द, हमसफ़र और जिगर का टुकड़ा हो चला है। इसे हर मानव आजकल अपने सीने से लगाकर सोने की आदत बना चुका है । हाल यह है कि इसे मानव अपनी दिनचर्या व्यतीत करने का प्रमुख साधन मानने लगा है। 


   ऐसा भी नहीं कि इसके सभी परिणाम दुष्प्रभावी हैं। यह असल जिंदगी में भी अति उपयोगी है, लेकिन तभी तक, जब तक यह अपनी सीमा लाँघ नहीं देता। आज विश्वभर में इंटरनेट के माध्यम से शिक्षा, स्वास्थ्य एवं न्याय जैसी मूलभूत समस्याओं का समाधान किया जा रहा है। ई-शासन, ई-हॉस्पिटल, ई-नाम एवं ई-कोर्ट इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। यह वैश्विक मंच पर सोशियल संवाद का जरिया बन चुका। लेकिन इस मशीन के अनावश्यक अतिउपयोग को वर्तमान में कुछ मनोविज्ञान के जानकार महामारी के रूप में देख रहे हैं; वो मानव और खासकर नवसृजित पीढी में मोबाइल से होने वाले दुष्प्रभाव से चिंतित हैं। जानकार मानते हैं कि मोबाइल के कारण मनुष्य में अनेक बदलाव आने लगे हैं। इंसान की सोच, काम करने का तरीका और उसका व्यवहार जेब में फिट बैठने वाली मशीन ने बदल कर रख दिया है। इंसान खुद में ही खोया-खोया सा रहने लगा है। सामने बैठे इंसान से उसे रत्ती भर मतलब नहीं, चाहे वो उसका सगा ही क्यों न हो। उसे खाने से मतलब नहीं; उसे अपने शरीर, अपने पहनावे से मतलब नहीं। हद तो तब होती है जब दो दिन तक बिजली गुल होने के कारण मोबाइल बैटरी खत्म हो जाती है और वह बावला हो जाता है। ऐसा प्रतीत होने लगता है कि उसने बैटरी चार्ज न होने के कारण अपनी बहुमूल्य वस्तु या फिर अपना जीवन ही खो दिया हो।

   अब एक वाजिब सवाल यह है कि क्या वास्तव में लोग मोबाइल से अपने ऑफिशियल या जरूरी काम करने के लिए 24×7 की आदत बना चुके हैं; या फिर, यह खुद को व्यस्त बताने की अवधारणा गढ़ने के लिए एवं गलत कामों को अंजाम देने के लिए किया जा रहा है। इस सवाल के जवाब तलाशने की जरा सी कोशिश भर से ही आश्चर्यजनक आंकड़ो की भरमार सामने आ जाती है। विश्व भर के आंकड़ो पर नजर दौड़ाई जाए तो पूरे विश्व में मोबाइल का सम्पूर्ण रूप से सदुपयोग करने वालों से ज्यादा  दुरुपयोग करने वाले लोगों की संख्या हो चुकी है। और यह आंकड़े और भी चिंतित करने वाले हैं कि  दुरुपयोग करने वालो में सर्वाधिक संख्या युवाओं की है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। अपने देश में भी आधे से अधिक युवा यूजर्स, मोबाइल और इंटरनेट का गलत कामों में इस्तेमाल कर रहे हैं । 



  
   इसी परिप्रेक्ष्य में आज यह देखना आवश्यक हो गया है कि आपका लाडला या लाडली चाहे फेसबुक पर बैठे हों या ट्विटर पर, या फिर किन्हीं बेवसाइट्स को खंगालने पर, वे वहां कर क्या रहे हैं ? क्या वह काम की जानकारी जुटाने में लगे हैं या वे मनोरंजन या फिर चैटिंग करने में ब्यस्त हैं, यह देखना अतिआवश्यक है। पूरे विश्वभर में 60 प्रतिशत युवा इसका रचनात्मक उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग आपराधिक एवं आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने लिए भी मोबाइल एवं इंटरनेट का भरपूर उपयोग कर रहे हैं। स्पष्ट है कि मोबाइल पर ब्यस्त रहने वाले आधे से अधिक लोग अपना समय बरबाद कर आभासी जीवन जी रहे हैं । जो कि मानव जीवन की रचनात्मकता एवं उसके नवोन्मेष करने की प्रवृत्ति पर गहरी चोट है।



   
   कुछ वैज्ञानिक एवं डॉक्टर मानते हैं कि भविष्य में स्थिति और अधिक गंभीर होगी। लोग एक दूसरे से बात करने के बजाय मोबाइल से खेलना पसंद करेंगे। बहरहाल, आंकड़ें कुछ भी हों, मनुष्य अपने परिवार एवं सामाजिक जीवन को छोड़कर मोबाइल को ही अपना "भगवान" मानने लगा है और आभासी जीवन जीने के लिए मजबूर हो चुका है, यही सत्यता है। और इसके भविष्य में क्या प्रभाव या दुष्प्रभाव होंगे, यह हमें समय पर ही छोड़ना देना उचित होगा ।

Monday, August 6, 2018

भगवान बद्री नारायण जी की आरती का असल लेखक कौन ?

जय बद्री विशाल !


चर्चा में क्यों :

   आजकल पूरे देश में भारत के चारधामों में से एक धाम
अनिरुद्ध पुरोहित
(स्वतन्त्र लेखक एवं टिप्पणीकार)
भगवान बद्रीनाथ जी की स्तुति/आरती चर्चा का विषय बनी हुई है। बद्रीविशाल की आरती के चर्चित होने का कारण इसके वास्तविक लेखक की पहचान सम्बन्धी विवाद है। अब तक यह माना जाता था कि चमोली जनपद के नंदप्रयाग निवासी 'नसरुद्दीन' या 'बदरुद्दीन' ने बद्री विशाल की आरती 'पवन मंद सुगंध शीतल हेम मंदिर शोभितम्' की रचना की है। लेकिन हाल के दिनों में आरती से संबंधित कुछ नए तथ्य तथा पौराणिक पांडुलिपियां सामने आई हैं। उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के तल्ला नागपुर पट्टी के सतेराखाल क्षेत्र के अंतर्गत स्यूपुरी गाँव के 'महेंद्र सिंह बर्त्वाल' ने बद्रीनाथ भगवान की आरती की पांडुलिपियों के आधार पर दावा किया है कि यह आरती 'बदरुद्दीन' नामक व्यक्ति ने नहीं बल्कि उनके परदादा 'ठाकुर धन सिंह बर्त्वाल' ने लिखी है। 'महेंद्र सिंह' का कहना है कि उनके परदादा क्षेत्र के मालगुजार तथा अत्यधिक विद्वान व्यक्ति थे। उनके अनुसार, वर्ष 1881 (लगभग 137 साल पहले) में इस स्तुति की रचना उनके परदादा ने की थी, जिनके साक्ष्य उनके पास हस्तलिखित भोजपत्रीय पांडुलिपि के रूप में उपलब्ध हैं।





वर्तमान आरती और पांडुलिपि के पदों में अंतर :

   गौरतलब है कि वर्तमान में गायी जाने वाली बद्रीविशाल की आरती में केवल 7 पद हैं जबकि हाल में सामने आई पांडुलिपि में कुल 11 पद हैं और आज गायी जाने वाली आरती का पहला पद इस पांडुलिपि में 5वां पद है। अर्थात इस पांडुलिपि में वर्तमान में गायी जाने वाली आरती से 4 पद अधिक हैं। वर्तमान आरती और पांडुलिपि में काफी हद तक समानता है लेकिन इसमें कुछ पंक्तियों तथा शब्दों में भिन्नता है तथा प्राप्त हुई पांडुलिपि में कुछ शब्दों का भी प्रयोग क्षेत्रीय भाषा में भी किया गया है।

ठाकुर धन सिंह बर्त्वाल जी द्वारा 1881 में लिखित 11 पदों की बद्रीनाथ जी की आरती ।


कौन था बदरुद्दीन :

   अब तक इस आरती के रचयिता के रूप में मुस्लिम भक्त 'बदरुद्दीन' का नाम सामने आता है। 'बदरुद्दीन' कौन था, इस सम्बंध में ऐतिहासिक पड़ताल करने पर कुछ रोचक जानकारियां सामने आई हैं। 'बदरुद्दीन' पोस्ट मास्टर के पद पर कार्यरत थे और सबसे रोचक तथ्य यह कि, 'बदरुद्दीन' का परिवार जन्मजात मुस्लिम नहीं था। 'बदरुद्दीन' के पूर्वज 'गौड़ ब्राह्मण' थे और पौड़ी जिले के जयहरीखाल क्षेत्र के किमोली फलदा के निवासी थे। 'बदरुद्दीन' के एक पूर्वज 'मनु गौड़' ने वहां रहने वाले मुस्लिम खान परिवार की एक लड़की से शादी कर ली थी। चूंकि, 'मनु गौड़' ब्राह्मण जाति के थे और मुस्लिम लड़की से शादी कर चुके थे; इसलिए उनकी जाति के लोगों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया और वे अपनी प्रतिष्ठा के खातिर पौड़ी से चमोली और फिर नंदप्रयाग जा बसे। 'बदरुद्दीन' का व्यक्तित्व अत्यधिक भक्तिवान होने के कारण वे हिन्दू लोक त्यौहारों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेते थे और रामलीला में संगीत मास्टर का कार्य भी करते थे ।



व्यापक शोध की आवश्यकता :

   बहरहाल भगवान बद्री नारायण जी की आरती के असल रचयिता कौन हैं, इस पर व्यापक शोध के बाद ही प्रामाणिक तथ्य सामने लाए जा सकते हैं । लेकिन इस प्रश्न की 'कि अगर बदरुद्दीन इस आरती के लेखक नहीं थे तो उनका नाम कैसे प्रचलित हुआ और ठाकुर धन सिंह बर्त्वाल वास्तव में इस आरती के रचयिता थे तो उनके नाम को प्रसिद्धि न मिलकर बदरुद्दीन को क्यों असल लेखक माना गया' पर भी राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर व्यापक बहस एवं शोध की आवश्यकता है। 


सरकार से अपील :

   इस विषय के करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़े होने के कारण भारत सरकार, उत्तराखंड सरकार, संस्कृति विभाग और पुरात्ववेत्ताओं से आग्रह है कि वे इस विषय पर गहन शोध करवाएं और बद्रीनाथ जी की स्तुति के वास्तविक लेखक को विश्वस्तर पर पहचान दिलाएं।

Saturday, August 4, 2018

International Friendship Day.....




अनिरुद्ध पुरोहित
(स्वतन्त्र लेखक एवं टिप्पणीकार)



जब पूरे विश्व में मानव विकास के सम्बंध में ऊहापोह की स्थिति हो, हर व्यक्ति अपने विकास पर फोकस्ड हो तो 'इंटरनेशनल फ्रेंडशिप डे' की प्रासंगिकता को समझना जरूरी है। इन दिवसों के अवसर पर सोशल मीडिया में "मित्र विचारों" का ट्रैफिक उमड़ पड़ता है। आइये जानते हैं कब, क्यों और कहाँ से शुरू हुआ फ्रेंडशिप डे और वर्तमान भौतिकवादी युग में कितनी प्रासंगिकता रह गयी है इस दिवस की ....


फ्रेंडशिप डे की शुरुआत :

   'फ्रेंडशिप डे' की शुरुआत 1935 में अमेरिका से हुई थी। कहा जाता है कि अगस्त के पहले रविवार को अमेरिकी सरकार ने एक निर्दोष व्यक्ति को मार दिया था, जिसके दु:ख में उसके दोस्त ने आत्महत्या कर ली। जिसके बाद दक्षिणी अमेरिकी लोगों ने 'इंटरनेशनल 'फ्रेंडशिप डे' (International Friendship Day) मनाने का प्रस्ताव अमेरिकी सरकार के समक्ष रखा। इस हादसे के बाद लोगों के इस प्रस्ताव को सरकार ने पहले तो मानने से बिलकुल मना कर दिया था लेकिन उनके गुस्से को शांत करने के लिए बाद में अमेरिकी सरकार ने लगभग 21 साल बाद 1958 में ये प्रस्ताव मंजूर कर लिया, जिसके बाद अगस्त के पहले रविवार को 'फ्रेंडशिप डे'  मनाने का चलन शुरू हो गया।

भारत में फ्रेंडशिप डे :

   भारत में 'फ्रेंडशिप डे' अगस्त के पहले रविवार को मनाया जाता है। 'फ्रेंडशिप डे' मनाने का चलन वैसे तो पश्चिमी देशों से शुरू हुआ, लेकिन भारत में भी पिछले कुछ सालों से युवाओं के बीच ये काफी लोकप्रिय हो रहा है। लोग इस दिन एक-दूसरे को ग्रीटिंग कार्ड, सोशल मीडिया और एसएमएस के जरिए बधाइयां देते हैं।



मित्र और वास्तविक मित्र :

   यूँ तो आज की पीढ़ी के पास दोस्त बनाने के अनेक माध्यम उपलब्ध हैं, लेकिन क्या वास्तव में ये दोस्त, दोस्ती निभाते हैं। जगजाहिर है कि जीवन में अच्छे मित्रों का साथ हमें ऊँचाइयों पर पहुंचने में मददगार होता है। लेकिन 21वीं सदी की यौवन पीढ़ी सोशल मीडिया पर अधिक समय बिताने में मशगूल है। नवपीढी के अच्छे 'मित्र' हों, इसमें शंका है। हाँ, अच्छे 'वर्चुअल फ्रेंड्स' हो सकते हैं.....फेसबुकी फ्रेंड्स। ऐसे फ्रेंड्स जो आपकी फीलिंग सेड और फीलिंग इलनेस को भी लाइक (पसंद) कर खेद जताते हैं।  आधुनिकीकरण और अत्यधिक शहरीकरण की होड़ ने  मित्रता और मित्रों को भी शहरी बना दिया है। मेरे युवा मित्र शायद सहमत न हों मगर वास्तविकता यह है कि उनकी 'मित्रता' की अवधारणा और वास्तविक 'मित्रता' की अवधारणा में बुनियादी फर्क आ गया है। इंटरनेट से उपजी यह पीढ़ी सोशल मीडिया पर चैटिंग, बार में मस्ती, डिस्को-डांस और देर रात खत्म होने वाली पार्टियों में साथ-साथ उठने-बैठने, घूमने और साथ-साथ 'वीक-एंड' मनाने, न्यू इयर सेलीब्रेट करने और बर्थडे पार्टी मनाकर एक दूसरे का झूठा केक खाने भर को ही 'दोस्ती' समझने लगे हैं। इसीलिए इन्हें स्वयं पता नहीं कि कब छोटी सी बात पर कहासुनी होने पर इनकी मित्रता पर ब्रेक लग जाय और फेसबुक स्टेटस आ जाय "फीलिंग हार्टब्रोकन" !


क्या होता है दोस्त का मतलब :

   हमारी नजर में दोस्त उस व्यक्ति को कहा जाता है, जो हमें घुमाए, फिराए, फिल्म दिखाए, खाना खिलाए, मौज-मस्ती कराए, हमारे सारे शौक-मौज पूरे करे, वो भी अपने पैसों से। इस तरह के व्यक्ति को हम आज के समय में दोस्त कहते हैं। लेकिन क्या सही मायने में यह हमारे दोस्त बनने लायक हैं भी या नहीं? मेरी नजर में दोस्त उस व्यक्ति को कहेंगे, जो आपके सुख के समय में भले ही साथ न हो, पर दु:ख के समय में आपका साथ दे।

दोस्ती का सही मायनों में अर्थ :

   'दोस्ती' शब्द दो लोगों के मध्य एक विश्वास है, जो आज के समय में महज 'एक नाम और भद्दा मजाक' बनकर रह गया है। दोस्ती का सही अर्थ आज तक कोई नहीं समझ पाया है। सही मायने में दोस्ती वह है जिसमें आपका दोस्त आपके सद्गुणों को दिखाए और आपके अवगुणों को छुपाकर रखे। किसी भी अनजाने व्यक्ति के सामने आपका मजाक न बनाए और शर्मिंदा न करे। दोस्ती की सही मिसाल तो भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा की है। सुदामा भगवान श्रीकृष्ण के परम‍ मित्र तथा भक्त थे। वे समस्त वेद-पुराणों के ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मण थे। श्रीकृष्ण से उनकी मित्रता ऋषि सांदीपनि के गुरुकुल में हुई थी। इन दोनों की दोस्ती के किस्से हम आज तक याद करते आ रहे हैं। 


क्या होती है सच्ची मित्रता :

   मित्रता में एक ऐसा साथ हो, जो पूजा की तरह पवित्र व सात्विक हो और सर्वथा निर्विकार हो। ऐसा अपनत्व जो मन की गहराइयों को छूकर हमारी धमनी और शिराओं में हमें महसूस हो और हमारी हर धड़कन के साथ स्पंदित हो... यकीनन ये सब भावना के आवेग से उपजे शब्द प्रतीत हो सकते हैं, मगर हर उस व्यक्ति को जिसकी जिंदगी में कोई सच्चा 'मित्र' रहा हो, उसे यह अपनी ही बात लगेगी। 
खलील जिब्रान ने कहा है- 'एक सच्चा मित्र आपके अभावों की पूर्ति है।' यकीनन इस द्वंद्व और उलझनों से भरे जीवन में कुछ पल शांति और सुकून के मिलते हैं। तो वह सिर्फ इस दोस्ती के दायरे में ही। यही वजह है कि शायद ही संसार में ऐसा कोई प्राणी हो जिसका कोई मित्र न हो या कभी न रहा हो।


संस्कृत के श्लोक में परिभाषित मित्रता :

चन्दनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चन्द्रमाः ।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।
अर्थात् : संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है | अच्छे मित्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है ।



क्या रिवर्स पलायन करा पाएगी सरकार ?

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